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श्रीमन नये कलेंडर वर्ष
श्रीमन नये कलेंडर वर्ष…
आ पहुँचे श्रीमन नये कलेंडर वर्ष
आपके पधारने पर सभी को हर्ष
सभी प्रसन्नचित और बेहतर चुस्त
हर कोई आशान्वित व सार्थक दुरुस्त
समाज में हर कोई एक से बढ़कर एक
हर कोई अपनी मंज़िल लिए पर रास्ते अनेक
प्रभू अनुकम्पा कारण अनुगृहित हर पल
सभी मिलकर रहें न करे कोई छल
सभी एक-दूसरे से एक क़दम आगे
पर अपनी ज़िम्मेवारी से न कोई भागे
बाई जी तो गए आ पहुँचे श्रीमन तेईस
हर इंसान ईमान से हो पक्का रईस
ग़रीब तक की झोली सदा रही भरी
इत्मिनान से समर्पित भाव से हरी-भरी
कुछ आपको प्यार से बहकाऐगें
ख़ुल्ली आँख से सब्ज़ बाग़ भी दिखाऐगें
किसी कॉलोनी सड़क के नाम पर फुसलाऐगें
सैक्टरों में बिना नींव की छत पर बिठाऐगें
पर तुम अडिग रहना और डटे रहना
बस इन झांसों में कतई न बहना
वरना पड़ेगा बहुत पछताना
मेहनत मशक्कत ही लाज़ का गहना
इसी सहारे पड़ेगा आख़िर सबको जीना
किस्मत भी सबकी बहुत ख़ूब चमकेगी
भाल पर मेहनत ही तो दमकेगी
आने वाला हर पल परचम लहरायेगा
सबकी झोली ख़ुशियों से भर जाएगा
ख़ुशियाँ अंग-संग रहें जीवन भी उत्कर्ष
मुबारक हो सबको श्रीमन नये कलेंडर वर्ष
श्रीमन नये कलेंडर वर्ष…
श्रीमन नये कलेंडर वर्ष…
ज़िन्दगी कभी…ज़िन्दगी कभी…
ज़िन्दगी कभी जागती कभी सोती
ज़िन्दगी कभी हंसती कभी रोती
ज़िन्दगी कभी उख़ाड़ती कभी बोती
ज़िन्दगी कभी-कभी ज़िन्दगी कभी-कभी
ज़िन्दगी कभी…ज़िन्दगी कभी…
ज़िन्दगी कभी पाती कभी ख़ोती
ज़िन्दगी कभी मैली कभी धोती
ज़िन्दगी कभी अंधियारा कभी ज्योति
ज़िन्दगी कभी-कभी ज़िन्दगी कभी-कभी
ज़िन्दगी कभी…ज़िन्दगी कभी…
ज़िन्दगी कभी बढोतरी कभी कटौती
ज़िन्दगी कभी पकवान कभी दाल-रोटी
ज़िन्दगी कभी बड़ी कभी छोटी
ज़िन्दगी कभी-कभी ज़िन्दगी कभी-कभी
ज़िन्दगी कभी…ज़िन्दगी कभी
ज़िन्दगी कभी लट्ठ कभी सोटटी
ज़िन्दगी कभी पतली कभी मोटी
ज़िन्दगी कभी पत्थर कभी हीरा-मोती
ज़िन्दगी कभी-कभी ज़िन्दगी कभी-कभी
ज़िन्दगी कभी…ज़िन्दगी कभी…
ज़िन्दा ही मर जाओगे…
माना अब तक कि बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ
ठीक हमनें बेटी भी बचाई और ख़ूब पढ़ाई
पर शायद तुम्हारी मंशा न रत्तीभर बदल पाई
पहले की तरह ही अपनी रंगत दिखलाई
बस दिखावे ख़ातिर कुछ योजनायें बनाई
रोज़गार में अग़र अब भी प्रतिभा नहीं लगाओगे
तो फिर देश में विकास कहाँ से लाओगे
बस पर्चों में ही खड़ा सब्ज़ बाग़ दिखाओगे
लगता बस क्या सुविधा शुल्क ही खाओगे
गुनाहगार को कब तक चतुराई से बचाओगे
दूसरों के चूल्हे बुझा कब तक़ रोटी खाओगे
कुछ तो शरम करो नैतिकता और प्रतिभा की
कब तलक़ छाछ को ही मलाईदार दूध बताओगे
कुछ योग्य समझ कर ही बक्श दो हुनर को
मर गई चिड़िया तो बहुत फिर शायद पछताओगे
बचा लो कुछ तो ईमानदारी के नाम पर
पैदल दिमाग़ से ख़ाली खेत खलिहान फिर उपजाओगे
बंज़र पड़े खलिहानों में बम्पर फ़सल तुम उगाओगे
ख़ाली पड़े गोदामों में अनाज कैसे भर पाओगे
बिन माचिस के कितने घर तुम और फूँकवाओंगे
तड़पती ज़िन्दगानी से कैसे तुम आँख मिला पाओगे
चमकते अपने चेहरे न चैन से जी पाओगे
करो कुछ पुरषार्थ नहीं ज़िन्दा ही मर जाओगे
करो कुछ पुरषार्थ नहीं ज़िन्दा ही मर जाओगे
वैसे ही किरदार…
बहुत पहले भी रही मारामार
आज़ भी ज़ारी वही मारामार
बिल्कुल नहीं बदले हालात
ठीक पहले की तरह सारी बात
वैसे ही सब किरदार
वही जज़्बात और दुकानदार
पहले कुछ आउटलेट्स रहे
अब माॅल हो गए
पहले संसाधन कम रहे
अब मालामाल हो गए
रोज़गार मांगने वाले हुऩरमंद
देने वाले कबूतरबाज़ हो गए
पहले चोर उचचके और पॉकेटमार
अब तो झटके में सीधे ही बैंक ही पार
पहले किसी-किसी को लोन मिलता
काफी देर बाद उसका भार हिलता
अब तो हर किसी को आपके द्वार
आ गई डिफॉल्टरों की भरमार
अब तो बस एक क्लिक पर पाओ
लोन मिलते ही अंतर ध्यान हो जाओ
ढूँढते रहो बस सामाजिक पटल पर
बंदा गायबहो गया जैसे क़त्ल कर
ज़माना बड़ा ही हाईटेक हो गया
जैसे विश्वास बिल्कुल फैक हो गया
दोस्ती पक्की पर यारी गायब
सोच बुलंद पर क्यारी गायब
हर जग़ह विसंगतियों की भरमार
हर जग़ह उपलब्ध वैसे ही किरदार
वैसे ही किरदार…
हमारी गली आया करो…
न वह ख़त-ओ-ख़ताबत न कोई भावनात्मक अभिव्यक्ति
अपने ही खो गए निराश हुआ हर व्यक्ति
प्यार मोहब्बत प्रेम भावना सब हो ग्ई गौण
अब केवल वासना बची न पहले वाला दृष्टिकोण
पहले वाले घर सारे अब बन गए मकान
पुराने समय के जज़्बात सब तब्दील हुए दुकान
दीवारें चाहे कच्ची रही पर रिश्ते बहुत मज़बूत
चट्टान-सी समर्पित सोच असंस्कारित न कोई छूट
न वह खेत-खलिहान बचे न ही अनमोल फसलें
कंगाली में आटा गीला बिगड़ गई सब नस्लें
न दूध-दही या मलाई बची न ही घी कटोरे
संतुलित तो आहार छूटा सब बन गए चटोरे
न अपनापन न कोई ग़हरी दोस्ती और व्यवहार
जहाँ देखो बसंती करे बस पैसे से प्यार
न वह गलियाँ चौबारे न कोई प्रेम नगर
हालातनुसार अब हर मोड़ पर कांटों भरी डगर
मोहल्ले भी छूमंतर हुए रास्ते ही बने कॉलोनी
हर कोई विकसित हुआ करे दावा बन धोनी
किसे कहें हालातनुसार हमारे यहाँ आया करो
न किसी को कह सकते हमारी गली आया करो
हमारी गली आया करो…
हमारी गली आया करो…
वाह रे शहर की हवा
वाह रे शहर की हवा…
गांव में आज़ भी दरकार
एक घर और सन्युक्त परिवार
शहरों में अज़ब शज़र लगी
रिश्तों तक को नज़र लगी
सब कुछ ही बिखरने लगा
अपना ही तो खटकने लगा
सब्ज़ी क्या बस प्यार बना लो
दिखाने ख़ातिर चार बना लो
बंद कमरे में आचार से खा लो
अपने आप को अमीर बता दो
मतभेद क्या उभरे परिवारों में
दरार पड़ी घर की दिवारों में
जहाँ रोटी बनने से पहले गिनती
पहले ना नुक्कड़ फिर विनती
वहाँ पर बरकत क्या करेगी
पेट शायद भरे नीयत कहाँ भरेगी
पेट तो सदा खाली ही रहेगा
मानते हो हालात यूंही रहेगा
क्यों सब एक दूसरे से खफा
वाह रे शहर की हवा
वाह रे …
आँख दोनों ही भर आई
आँख दोनों ही भर आई
हालात ने वज़ह कोई बताई
ज़िन्दगी कई बार न जाने
कैसे चौराहे पर बना बेगाने
कर दिया करती खड़ी
छोटी मुसीबत लगती बड़ी
बयाँ करने को भी नहीं मिलते शब्द
भावनायें होते हुये भी रहे निशब्द
पता नहीं क्या रही होगी मज़बूरी
उस शक्स की कोई ज़रूरी
रोया भी न गया भाई
आँख भी दोनों…
हालात ने कोई…
ज़िन्दगी में ज़ब ज़्यादा तकलीफ़
बदमाश ही लगा करते शरीफ़
ज़ब हम किसी अपने से
मिलते बन बहुत नपने से
दर्द भी सांझा नहीं कर सकते
निकल ज़ाते कई दिन धकते-२
गर कर भी लें वह जाने अनजाने
कर दे अनसुना फिर क्या माने
पूछे अंतरमन दिया कुछ सुनाई
आँख दोनों ही…
हालात ने कोई…
यही सोच कर हम अक्सर
सह जाया करते ख़ामोश बन कर
कि शायद हमारी तरह अकारण
उसकी भी हालात कारण
रही होगी कोई भी मज़बूरी
हालात की वज़ह नहीं ज़रूरी
रही होगी आँख में रुसवाई
रोने भी न दे यह तन्हाई
आँख दोनों ही …
हालात ने कोई…
आज़ भी याद आती
आज़ भी
अपने घर की
दहलीज़ पर
पांव पड़ने से पहले
पांव एकाएक
रुक से ज़ाते
हक़ीक़त में शायद
माँ और पिता जी के कारण
ज़िन की बदौलत
आशियाना व सिर
ढ़कने को छत मिली
आज़ भी बहुत याद आती…
परिवार क्या…संस्कारी जन्नत मिली
भाई क्या… हौंसले मिले
बहनें क्या… ज़ज्बा मिला
पत्नी क्या… हिम्मत मिली
बेटियाँ क्या… मज़बूत कांधे मिले
दोस्त क्या… विश्वास मिला
जैसे दीया और बाती
आज़ भी बहुत याद आती…
बस परमात्मा ने
बहुत कुछ दिया
अब तक नहीं मिला
तो बस
साक्षात नहीं मिला
सहारा ख़ूब मिला
जैसे प्रेम की पाती
आज़ भी बहुत याद आती…
आज़ भी बहुत याद आती…
वाक्य ही अब तो
वाक्य ही अब तो
डर बहुत लगता
ज़ब आपको कोई
डर लगने य़ा सताने लगे
तो कृपया डरें नहीं
क्योंकि दोस्त
मौत से क्या डरना
यह तो वह बारात
ज़िस में सभी को
देर सबेर सज धज कर
जाना ही जाना
बस एक सफ़ेद चादर ओढ़
डर तो ज़िन्दगी से लगता
ज़िसे जीने के लिये
तरह तरह के बाने बदल
रंगीन चादर ओढ़ने ख़ातिर भी
कई जुगाड़ करने पड़ते
फिर भी कोई तस्सल्ली नहीं
वाक्य अब तो …
वाक्य अब तो …
ज़्यादा वाले देखो
ज़्यादा वाला देखो थोड़े वाले को खा ड़ांटते
रिश्वात को भी बस सुविधा शुल्क बता ग्रांटते
थोड़ी ही शर्म बची रही य़कीनन अब तक
खा दवाई की गोलियां उसे भी पचा बांटते
ज़्यादा वाले देखो…..
सरकारी नौकरी वाले सब पर अपना रौब झाड़ते
बड़ी चतुराई से अपनी नैतिक ज़िम्मेवारी से भागते
काम वही करते सदा यही दर्शाते सीना तान
लाज-शर्म भी डूबती ज़ब धनियां संग सब्जी मांगते
ज़्यादा वाले देखो….
ज़ितना काम उतना दाम गर सभी ऐसा मांगते
इनकी तो बस निकल पड़ी सभी ऐसा मानते
दे कर गुप्त चढ़ावा जुबां तक रखे बंद
फिर बंद दरवाज़ों से ही सभी को हांकते
ज़्यादा वाले देखो…….
ज़ायज़ काम भी रोके पलभर में ऐसा बांचते
ज़वाब हमें भी देना फिर ऐसे ही जांचते
उलटी पड़ जाती ज़ब खुद के ही नकेल
रंग बदल गिरगिट सा बन शरीफ़ सब फांदते
ज़्यादा वाले देखो……
आप कौन
आप कौन तब तक
अंजान हैं ज़ब तक
आपकी ज़ेब में धन दौलत
सब आपके के मोहलत
लाख मतभेद व अंजान
फिर भी आप उनकी जान
लिये अपनापन व आत्मियता
दर्शाते हुये सभी सभ्यता
पुछते आपका हाल
ओढ़ कर खाल
कि जनाब आप कैसे
क्योंकि जेब में पैसे
जैसे ही आपके पैसे गौण
आप हमारे हैं कौन
एक दम बदलता नज़रिया
कीमती वस्तु भी बज़रिया
आप लगने लगते नाज़ायज़
उनकी हर बात ज़ायज़
आसपास का माहौल गौण
आप कौन आप कौन
वो सारी उम्र
वो सारी उम्र
फ़रेब और मक्कारी का
मक्खनदार झूठ बोलते रहे
फिर भी एक दम
सच्चे और ईमानदार रहे
हम सारी ज़िन्दगी
सच बोलने की हिम्मत
दिखाते हुये बोलते आये
फिर भी हमारी गिनती
ऊच श्रेणी के झूठों में रही
पता नहीं कैसा झूठा सच
सच्चा झूठ आजकल
समाज के चलन में
अपने पांव पसार रहा
वो सारी उम्र ….
जन्माष्टमी का आया त्यौहार
जन्माष्टमी का आया त्यौहार
चारों ओर भक्ति रस की बयार
भादों की काली अंधेरी रात
अष्टमी की सुनहरी सौगात
ज़ाहीर-सी है पक्की बात
देवकी वासुदेव के यहाँ जन्म लेगा लाल
यह संदेश सुन मामा कंस होगा बेहाल
वासुदेव उसे सुरक्षित कारवास से ले जायेंगे
पहरेदार भी गहरी नीद सो ज़ायेंगे
जन्म के बाद मंदिरों में होगा संकीर्तन
सब भक्तजन उल्लास से ख़ुशी मनायेंगे
मानों श्याम ख़ुद उनके यहाँ सीधे आयेंगें
देर रात भर भक्ति माध्यम छिड़ेगें तराने
कृष्ण सुदामा के उछलेंगे नटखट याराने
कान्हा बांसुरी भी बजायेगा
मटकी से माखन भी चुरायेगा
गोपियों संग रास भी रचायेगा
फिर सुदामा को गले भी लगायेगा
एक रात भर में इतना कुछ हो जायेगा
सुबह फिर अखबारों में पूरा वर्णन आयेगा
आंखे तरस गई ऐसा यथार्थ में कब आयेगा
य़थार्थ में कब आयेगा …
भीड़ और आप
भीड़ और आप
य़ा आपका चेहरा
चेहरा और भीड़
चेहरा आपका
जब तक रहेगा
बिल्कुल अंजान
तब तक ही
भीड़ में शामिल
जिस दिन वही
चेहरा आपका
आपकी किसी
विशेष उपलब्धि
कारण हुआ
जन व लोक प्रिय
उसी क्षण और पल
आपका वही
अन्जान चेहरा
बेइंताह प्यार
शौहरत के नीले
गहरे समुद्र में
तबदील और
पीछे अपार भीड़
भीड़ और चेहरा
चेहरा और भीड़
अथार्त
भीड़ और आप …
सब अपने ही हुये पराये
सब अपने ही हुये पराये
गैर हुये अपने ही साये
जिनको अबतक समझा अपना
वो ही तो पैसों से नहाये
सब अपने …
बचपन अपना ख़ूब सलोंना
जीवन जैसे कोई खिलौना
सोच ऊँची पर संगदिल बौना
वक़्त भी कैसे खेल खिलाये
सब अपने …
दोस्त खून सब अपने जैसे
लगते सब ही कोहिनूर जैसे
कहीं दिखावा ही छलके ऐसे
आँखे बस अब नज़र चुराये
सब अपने …
अपने ही सदा देते सहारा
भला गैरों से भी कोई हारा
ज़ब भी मिला जवाब करारा
राजदार ही मोर्चा संभाले पाये
सब अपने …
रेत मुठ्ठी में रुकता जैसे
हालात हमारे भी बिल्कुल वैसे
पता नहीं वह सब करते कैसे
सुना गिरगिट जैसे रंग बदल जाये
सब अपने …
खाली हाथ जैसे कोरा काग़ज़
वक़्त अपना पर रहा अपाहिज़
सब ने दुहा जैसे लगा ज़ायज़
हम सब यह समझ न पाये
सब अपने …
सारे पर्व ही हमारे लगते
पर अपनो से हारे लगते
पास बुलायें तो दूर भगते
सब मोबाईल-सी रेंज बनाये
सब अपने …
बचपन की शरारत
बचपन में करते रहे ख़ूब शरारत
आज फिर करने की हुई हरारत
अचानक कुछ अलग करने की ख़ातिर
जाग उठा सोया पड़ा दिमाग़ शातिर
तत्काल मन में एक अज़ब ख़्याल आया
पुराने तजुर्बे को असली ज़ामा पहनाया
अत्याधिक गर्मी कारण पड़ौसी घर अंदर
पहुँचा बाहर जैसे गुलाटी मारे बन्दर
इधर उधर झांका रास्ता बिल्कुल साफ
मन हुया हर्षित जैसे मिलेगा इंसाफ
बजा कर घंटी तुरंत भीतर भाग आया
बचपन की शरारत आज़ आनन्द आया
दिल हुया बाग़ बाग मन हुया प्रसन्न
बचपन की शरारत कर हुया धन्न-२
है कुछ मिलता कुछ
ज़िन्दगी अज़ब खेल गज़ब तामाशा
थोडी सफलता ज़्यादा हताशा
मीठे करेले कड़वी ज़िन्दगी
मेहनत से पहले ही बंदगी
मीठी ज़ुबान कड़वे बोल
बोले सो कुन्ड़ा खोल
कहते सब क़िस्मत का खेल
अनपढ़ पास पढ़े-लिखे फेल
मौज करें सारे बारी बारी
बोझ उठाये जनता सारी
कब तक बदलेगी व्यवस्था
जीना होगा सार्थक सबका
हर कोई कहता बस शिट
अपनी गोटी करता फिट
करो कुछ होता कुछ
है कुछ मिलता कुछ
हम बिल्कुल ही तो पूरे
वो जीवन में कुबेर चाहे
हम खाली जेब धनवान रहे
वो ख़्वाबों में भटकते रहे
हम हकीक़त में उलझते रहे
वो शक्ल देख कर राज़ी नहीं
हम बस दीदार को तरसते रहे
वो दुनियाँ की शान-अो-शौकत सही
हम मज़ार-सी दौलत हैं
वो कुतुब मिनार-सी ऊँची हैसियत
हम बेसमेंट से ज़मीदोज़
वो ज़लेबी-सी मिठास लिये
हम करेले से कड़वे हैं
वो सूखे मेवे हों चाहे
हम पिलपिले आम की गुठली हैं
वो रंगीन सोच रखते शायद
हम श्वेत शाम-सी यादें हैं
वो असली हक़ीक़त हों चाहे
पर हम तो खोखले वादे हैं
वो अपने आप में पूर्ण चाहे
हम उन बिन कत्तई अधूरे हैं
हम उन्हें निहारें टकटकी लगा
वो बिन कारण ही घूरें हैं
बस एक झलक पाते उनकी
हम तो बिल्कुल ही पूरे हैं …
हम तो बिल्कुल ही …
तैरना ही नहीं आता
सावन के इस
मस्त महीने में
तेरी झील-सी नीली
इन आँखों के
गहरे नीले समुन्दर में
एक बार उतर कर
एक डुबकी लगाने को
मेरा दिल तो
बहुत करता है
पर मज़बूरी कहूँ मेरी
या समझूँ मेरा ग़म
कि मुझे तो
तैरना ही नहीं आता——
तैरना ही नहीं आता——
अमीर और अमीरी
अमीर और अमीरी
उस अमीर के
क्या कहनें
जो चैंन से
खुद भी
रोटी न खा सकें
और
उस अमीरी का
क्या फायदा
जो मुसीबत के समय
किसी ज़रूरतमंद को
दो वक़्त की रोटी भी
मुहैय्या न करा सके
लो क्ल लो बात
दिल पर मत लेना
अमीर और अमीरी। …
मौसम देखो तो
मौसम देखो तो कैसे इतना खुशगवार हो गया
काफी अरसे का ख़त्म एक इंतज़ार हो गया।
बारिश की बूंदे क्या गिरी इस धरती पर
लगा ज़मीन से आसमां को प्यार हो गया
मौसम देखो तो …
मौसम की तरह खूबसूरत हो आप का दिन
गरम हावाओं-सा लगता यह मौसम तुम बिन
जाने कब बदलेगा तुम्हारे दिल का मिज़ाज
बीतते नहीं पल काटता दिन भी तारे गिन
मौसम देखो तो …
उनको उनसे एक नज़र में प्यार हो गया
मुलाकात पहली पर दिल दिल-ए-गुलज़ार हो गया
अब तलक अन्जान वक़्त के हाथों दोनों
लगा जैसे कई जन्मों का इकरार हो गया
मौसम देखो तो …
अव्यवस्था का बाज़ार
क्यों लगता है व्यवस्था लचर और लाचार हैं
आजकल तो ऐ टी म से निकले गांधी भी बेकार है
घर लाओं तो ख़ुशी मिलती है पर बाज़ार नकार देता है
पूछने पर बैंक कर्मी उसे तरिके से नकली क़रार देता है
रसुक वाला तो अपना काम हर ज़गह निकाल लेता है
बिना पहुँच वाला हर मुसीबत अपने गले डाल लेता है
क्यों लगता है व्यवस्था बहुत लचर और लाचार हैं
हर तरफ़ नकलीपन और अव्यवस्था का बाज़ार है
पनपता यहाँ अब मासुमियत भरा बस भ्रस्ट्राचार है
हर तरफ़ अव्यवस्था का बाज़ार हैं
हर तरफ़ अव्यवस्था का बाज़ार है
घी-शक्कर होना
आज़ भी मेरी वही पुरानी आदत
कि हर रिश्तें में ज़ीने की भरपूर कोशिश
व भरसक प्रयास
पर अब रिश्ते बचे ही कहाँ
गरिमा गायब और ज़ो हैं
वह भी तार-तार
टूटना तो बहुत दूर की बात
वही पहले सी मिठास को ढूंढ़ना
फिर उसी मिठास में घी-शक्कर होना
मन तो बहुत करता लेकिन भूल जाता
कि अब तो ज़माना ही शुगर-फ्री का
आज भी वही पुरानी आदत
घी-शक्कर होना …
पिता क्या होता है
कभी समझा क्या कि पिता क्या होता है
कभी जाना कि पिता-पिता क्यों होता है
पिता सदा सुनहरे पल-सा एहसास होता है
औलाद का तो सदा से श्वास होता है
परिवार का पूरा ही दृड़ विश्वास होता है
घर का मज़बूत स्तंभ व शिलान्यास होता है
नेक इरादों की सदा ही प्यास होता है
कठोर बाहर मगर अन्दर नर्म बॉस होता है
पिता सदा ही एक क्यास होता है
पिता हमेशा ही सार्थक दास होता है
पिता घर का शालीनता भरा लिबास होता है
पिता दूर हो कर कितना पास होता है
पिता ऊलझनों में भी न निराश होता है
पिता हालात से न कभी हताश होता है
पिता खाली होते भी भरा गिलास होता है
पिता हर किसी का बहुत ख़ास होता है
पिता हर किसी का …
पिता हर किसी का …
हौंसला और चिंता
हौंसला और चिंता
एक तरफ प्रत्येक बेटे के
बड़े होने पर
हर बाप को होता
बड़ा हौंसला
बेटा चाहे कितना भी निक्कम्मा
क्यों न हो
और दूसरी तरफ
हर बेटी के बड़े होने पर
हर पिता को होती
बहुत भारी चिंता
चाहे बेटी
कितनी भी होनहार
क्यों न हो
वज़ह शायद
हमारी सामाजिक
सोच और रिति-रिवाज़
हौंसला और चिंता …
हौंसला और चिंता …
एक तीर से कई शिकार
कई दोस्त
किसी का चेहरा
अपने लिये
मनहूस मानते रहे
कई किसी की
शक्ल देख कर
राज़ी नहीं
मास्क नें
उनका काम
आसान कर दिया
काम भी हो गया
बुरे भी नहीं बनें
एक तीर से
कई शिकार
हर कोई यहाँ अकेला
जीवन हर किसी को प्यारा
बचपन सबका राज दुलारा
अपराध जीवन में एक बार
एक को दूसरे से प्यार
सामाजिक ज़िम्मेवारिंयों का पहाड़
सारी उम्र फिर धोबी पछाड़
किलकारियाँ की चौतर्फा बहार
हर समय गले का हार
उम्र संग कई मेले
ज़िन्दगी में कुछ झमेले
सोच बराबर बदलती जाये
कुछ चीजे संभलती जाये
फिर सब छूट जाये
खाली हाथ रह जाये
यही चक्र हैं अलबेला
हर कोई यहाँ अकेला
आपका अपना
वीरेन्द्र कौशल
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